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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 82  महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा शर्मिष्ठा के व्यवहार पर आश्चर्य चकित रह गये । उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि शर्मिष्ठा को न केवल समूचे प्रकरण की जानकारी है वरन उसने उसका समाधान भी कर लिया है । एक तरह से उन्हें इस बात से बहुत प्रसन्नता हुई कि शर्मिष्ठा ने समस्या का पता कर उसका समाधान भी ढूंढ लिया था , यह उसके पूर्ण रूप से परिपक्व होने की पहचान थी । वह अब बचपन वाली शर्मिष्ठा नहीं रह गई थी जो समस्याओं का सामना करने से घबराती थी । अब वह न केवल समस्याओं के मूल तक जा सकती है अपितु पूरे राज्य के हित में अपना जीवन भी दांव पर लगा सकती है । इतना बड़ा निर्णय, ऐसा दृढ़संकल्प ? यह कोई छोटी बात नहीं थी । उसने न केवल उनके वचन की लाज रख ली थी अपितु उनके राज्य पर आये भीषण संकट से राज्य को भी बचा लिया था । इतिहास गवाह है कि जब जब राज्य पर बड़े बड़े संकट आये हैं, बेटियों ने आत्मोत्सर्ग करके राज्य को संकटों से उबारा है । महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा ने उसे अपने आत्मोत्सर्ग के लिए सैकड़ों आशीर्वाद प्रदान कर दिये ।

महाराज वृषपर्वा के सम्मुख बड़ा धर्मसंकट था । एक तरफ शर्मिष्ठा थी जिसने अपना संपूर्ण जीवन राज्य के लिए उत्सर्ग करने का निश्चय कर लिया था और दूसरी ओर उनका वचन था जो उन्होंने देवयानी को दिया था । यदि वे वचन का पालन नहीं करते हैं तो इससे उनकी प्रतिष्ठा धूल धूसरित हो जाती । उनका राज्य संकट में घिर जाता । दैत्य वंश का अस्तित्व समाप्त हो सकता था । महाराज वृषपर्वा एक साहसी और वीर व्यक्ति थे । वे शर्मिष्ठा का जीवन दांव पर नहीं लगाना चाहते थे । इसके बजाय वे अपने और अपने राज्य की बलि देने को तैयार थे किन्तु प्रियंवदा ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया और शर्मिष्ठा के निर्णय को उचित और समयानुकूल बताते हुए उसे स्वीकार करने की प्रार्थना की । किन्तु महाराज वृषपर्वा मान नहीं रहे थे । जब शर्मिष्ठा को इसकी जानकारी मिली तो वह बहुत चिंतित हुई और अपनी बात मनवाने के उपाय सोचने लगी ।

बहुत देर सोचने के पश्चात उसे ध्यान आया कि उसके पास तो "त्रिया हठ" नामक एक अमोघ अस्त्र है , क्यों नहीं उसे काम में लिया जाये ? उसने अपनी एक सेविका को अपने पास बुलाया और उससे कहा कि महल में घोषणा कर दे कि जब तक उसकी बात नहीं मानी जायेगी , तब तक वह अन्न जल ग्रहण नहीं करेगी । एक पल में यह बात पूरे प्रासाद में फैल गई । महाराज और महारानी ने भी यह बात सुनी तो वे दौड़े दौड़े शर्मिष्ठा के पास आये और उससे कहने लगे कि इस घोषणा को वह वापस ले ले । किन्तु शर्मिष्ठा अब पीछे हटने वाली नहीं थी । वह अपनी बातों पर दृढ बनी रही । थक हारकर महाराज और महारानी ने उसकी जिद के सम्मुख अपने हथियार डाल दिये । शर्मिष्ठा को उनके समर्पण से अत्यंत प्रसन्नता हुई ।

उधर शुक्राचार्य और देवयानी अपने स्थान पर ही डटे रहे । न तो वे आगे गये और न ही वे अपने आश्रम में वापस आये । खुले आसमान के नीचे भूखे प्यासे रहकर वे तपस्या और महाराज के उत्तरकी प्रतीक्षा करने लगे । तीन दिवस पूरे हो गये थे किन्तु महाराज वृषपर्वा की ओर से कोई संदेश नहीं आया था । देवयानी ने उन्हें सात दिन का समय दिया था । यदि सात दिन में उनकी बात यानि शर्मिष्ठा को देवयानी द्वारा निर्धारित दंड नहीं दिया जाता तो वे लोग तपस्या के लिए वह राज्य छोड़कर अन्य कहीं निकल जाते । अभी तीन दिवस और बचे थे । शुक्राचार्य और देवयानी इस विषय पर वार्तालाप करने लगे  "आपको क्या लगता है तात् कि क्या शर्मिष्ठा इस दंड को स्वीकार कर लेगी" ?  "करेगी कैसे नहीं ? उसके पास और कोई विकल्प है ही नहीं । लड़कियां बहुत संवेदनशील होती हैं । वे अपने परिवार पर कोई संकट नहीं देखना चाहती हैं । विशेष कर यदि उसके कारण परिवार पर कोई संकट आता है तो वे आत्मोत्सर्ग का रास्ता अपना लेती हैं । अनेक अवसरों पर देखने में आया है कि किसी अत्यन्त रूपवती राजकुमारी को पाने के लिए जब किसी शक्तिशाली राजा ने उस राज्य पर जब आक्रमण कर दिया हो और वह राज्य पराजित होने वाला हो तब उस राजकुमारी ने आत्मोत्सर्ग करके अपने परिवार और राज्य को बचाया है और स्वयं को आक्रमणकारी राजा को सुपुर्द कर दिया है । मैं शर्मिष्ठा को बहुत अच्छी तरह जानता हूं । वह भी ऐसा ही करेगी । मेरी यह बात गांठ बांधकर रख लेना देव" । शुक्राचार्य के मन में पूरा विश्वास था किन्तु देवयानी को विश्वास नहीं था । इस पर देवयानी बोली  "मैं भी शर्मिष्ठा को अच्छी तरह जानती हूं तात् । बहुत अभिमानी है वह । वह और चाहे कुछ कर सकती है मगर मेरी दासता कभी स्वीकार नहीं करेगी । उसे पता है कि मैं उसे कितना तंग करूंगी । ऐसे मैं कोई भी लड़की जानबूझकर नर्क में क्यों जाना चाहेगी, तात्" ?

उन दोनों के पास अन्य कोई कार्य तो था नहीं इसीलिए वे इसी विषय पर अक्सर वार्तालाप करते रहते थे और दोनों अपने अपने अनुमान लगाते रहते थे । चौथे दिन अमात्य पधारे और उन्होंने शुक्राचार्य के चरणों में मस्तक नवाकर महाराज का संदेश कहा  "गुरूदेव , शर्मिष्ठा देवयानी के द्वारा निर्धारित दंड को स्वीकार करना चाहती है । महाराज और महारानी शर्मिष्ठा को कहां लेकर आयें, यह महाराज पूछ रहे हैं । क्या यहीं पर आना है गुरूदेव" ?

अमात्य की बातें सुनकर शुक्राचार्य के अधरों पर विजयी मुस्कान आ गई और देवयानी तो प्रसन्नता में नृत्य करने लगी थी । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों की बर्बादी में जश्न मनाते हैं । ऐसे लोग ईर्ष्या-द्वेष से भरे रहते हैं । ये लोग कभी देना नहीं जानते, ये बस छीनना ही जानते हैं और उन्हें ऐसा करने में असीम आनंद की प्राप्ति होती है । देवयानी अपनी विजय पर इतराने लगी थी । उसे अहसास हो गया कि उसमें वह शक्ति है जो महाराज वृषपर्वा और राजकुमारी शर्मिष्ठा को भी झुका सकती है । उसने तो कच को भी श्राप दे दिया था । उसके पास श्राप का खजाना भरा पड़ा है । जिसके पास जो कुछ होगा वह औरों को वही तो दे सकेगा । देवयानी के पास यही था, इसलिए वह इसे भर भर झोली बांटने में लगी हुई थी । कच के बाद उसने शर्मिष्ठा के जीवन की बलि ले ली थी । अब पता नहीं वह और किस किसकी बलि लेगी ? क्या अगला नंबर सम्राट ययाति का है ? नकारात्मक लोगों से नकारात्मकता ही मिल सकती है, सकारात्मकता नहीं । देवयानी के अधरों पर एक जहरीली मुस्कान खेलने लगी थी । सौन्दर्य के अंदर इतना जहर भरा होता है, आज यह भी देख लिया था ।

शुक्राचार्य ने अमात्य से कहा "यदि महाराज और शर्मिष्ठा देवयानी द्वारा निर्धारित दंड स्वीकार कर रहे हैं तो अब हमें यहां पर रहने की कोई आवश्यकता नहीं है । इसलिए महाराज को भी यहां पर आने की आवश्यकता नहीं है । अब हम लोग अपने आश्रम चले जायेंगे । आप महाराज को कह दें कि वे कल आश्रम में ही पधारें । क्यों ये ठीक है ना देवयानी" ? शुक्राचार्य ने देवयानी की सहमति चाही ।

"हां तात् ! अब यहां रहकर धूप वर्षा क्यों सहन करें ? वहीं आश्रम में ही मिल लेंगे उनसे । और फिर 'राजकुमारी शर्मिष्ठा' को अधिक कष्ट नहीं देना चाहिए न तात्" ? उसके अधरों पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान थी । शुक्राचार्य ने सिर हिलाकर उसकी बात का समर्थन किया । अमात्य वहां से वापस चल दिये और पीछे पीछे शुक्राचार्य और देवयानी भी अपने आश्रम की ओर चल दिये ।

अगले दिन शुक्राचार्य के आश्रम में महाराज, महारानी और शर्मिष्ठा तीनों आये । महाराज और महारानी बहुत दीन अवस्था में लग रहे थे । उनके चेहरे की कांति विलुप्त हो गई थी । शरीर शिथिल हो रहा था और केशों में से सफेदी झांकने लगी थी । इन पांच दिनों में महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा की आयु 10 साल बढ गई थी और वे अब वृद्ध लग रहे थे । किन्तु शर्मिष्ठा के चेहरे पर कहीं से लाचारी नजर नहीं आ रही थी । वह पूर्ण रूपेण स्वस्थ लग रही थी । उसके चेहरे पर अभी भी आभा बनी हुई थी । उसे देखकर देवयानी को बहुत आश्चर्य हुआ । वह तो समझती थी कि शर्मिष्ठा उसके पैरों में पड़कर अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करेगी । किन्तु वह ऐसा तो कुछ भी नहीं कर रही थी ।  "कितनी अभिमानिनी है ये शर्मिष्ठा ? मैंने इसे राजकुमारी से दासी बना दिया है किन्तु इसका दंभ अभी तक गया नहीं है । लगता है कि इसके लिए यह दंड कम है । इसे अभी और तपाना पड़ेगा , तब आयेगी यह मेरे कदमों में" । देवयानी शर्मिष्ठा को देखकर मन ही मन जली जा रही थी । शर्मिष्ठा ने उसकी ओर देखा और उसके पास जाकर वह बोली

"शर्मिष्ठा दासी अपनी स्वामिनी की सेवा में उपस्थित है । मेरे लिए क्या आज्ञा है स्वामिनी" ? शर्मिष्ठा देवयानी के समक्ष झुककर खड़ी हो गई । शर्मिष्ठा के ये शब्द देवयानी को वरदान के सदृश लगे । उसके कान, मन और आत्मा सब शीतल हो गये । एक राजकुमारी उसे स्वामिनी कहकर संबोधित कर रही है । इससे अधिक आनंद का विषय और क्या हो सकता है ?

शुक्राचार्य महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा के चेहरे के आते जाते भाव देख रहे थे । कितना दर्द छलक रहा था उनके चेहरे से । उन्हें अब महसूस हुआ कि उनके साथ ज्यादती हुई है । वे पुत्री मोह में राज परिवार के प्रति अत्यंत कठोर हो गये थे । पर जो हो चुका सो हो चुका । बात इससे आगे नहीं बढ जाये इसलिए वे देवयानी को चेताते हुए कहने लगे  "देव, शर्मिष्ठा तुम्हारी सखि है । अब तक जो कुछ हो गया उसे भूल जाओ । शर्मिष्ठा ने तुम्हारी बात रख ली है और उसने स्वयं को तुम्हारे समक्ष दासी के रूप में प्रस्तुत कर दिया है । अब इस प्रसंग को यहीं पर समाप्त कर दो पुत्री और अब राजकुमारी शर्मिष्ठा को दासत्व से मुक्त कर दो । जो लोग बड़ा मन रखते हैं , लोगों के मन में सदैव वही रहते हैं तनये । छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता है देव । चलो, अपनी सखि से सखि भाव से मिल लो पुत्री" ।

शुक्राचार्य की बात सुनकर देवयानी सिंहनी की तरह दहाड़ उठी "आप शायद भूल गये हैं तात् कि शर्मिष्ठा ने मेरे साथ क्या क्या कांड किये हैं । पहले तो इसने मेरा दिव्य वस्त्र पहन लिया । फिर मुझे सब सखियों के समक्ष निर्वस्त्र कर दिया और जब इससे भी इसका पेट नहीं भरा तो इसने मुझे मारने के लिए एक कुंए में धक्का दे दिया । क्या इन सब घटनाओं को भूल जाऊं मैं ? आपका मन विशाल है तात् किन्तु मेरा नहीं है । अब मैं पूरी जिन्दगी इससे प्रतिशोध लेती रहूंगी" । फिर वह शर्मिष्ठा की ओर देखकर बोली  "उधर क्या खड़ी है ? मेरी दासी है ना तू ? तो चल , महाराज और महारानी के लिए जलपान की व्यवस्था कर" ।

शुक्राचार्य, महाराज और महारानी अवाक् होकर देवयानी को देखने लगे ।

श्री हरि  27.8.23

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6 Comments

Anjali korde

15-Sep-2023 12:30 PM

V nice

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Babita patel

15-Sep-2023 10:43 AM

Amazing

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hema mohril

13-Sep-2023 07:38 PM

Amazing

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